इन्सान है मंदिर, यह संकल्प लेना होगा
इन्सान है मंदिर, यह संकल्प
लेना होगा
डॉ. एम. डी. थॉमस
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जगत के परे एक बुनियादी ताकत विद्यमान है जिसे हम ‘खुदा’ कहते हैं और जिसकी करामात समूची रचना की वजह मानी जाती है। यह आस्था मानव जाति के आदिकाल से लेकर इन्सान की जि़न्दगी को चलाती आई है। लेकिन यह ताकत जगत के बाहर ही हो, ऐसा नहीं हो सकता। दिव्यता उसकी प्राकृतिक खासियत तो है। फि र भी, उसके लिए रचने का मतलब पालन करने के साथ-साथ मुक्त करना या अमर बनाना भी है। इसलिए अपनी रचना से लगा हुआ होना जितनी उसकी मजबूरी है, ठीक उतना उसका भीतरी गुण भी है।
‘यह खुदा क्या है’ इस जिज्ञासा ने इन्सान को उसके प्रति एक अजीब कशिश में बाँध कर रखा। मानव ने उस अरूप के रूप को निश्चित करने की कोशिश के साथ-साथ उसे महसूस करने की तमन्ना भी सदैव बनी रही है। नतीजा यह हुआ की वह दुनिया की कतिपय चीजों को ईश्वर की उपस्थिति का एहसास दिलाने के लिए माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने लगा। प्राकृतिक शक्तियों, पेड़-पौधों, पत्थर, लकड़ी आदि के अलावा इन्सान और जानवर की शक्ल में बनाई गई मूर्तियों में भी दिव्यता को थोपा गया। देवता के प्रति आस्था को व्यक्त करते हुए एक पूजा-अर्चना, आरती, धूप आदि का दौर चलता रहा। जैसे-जैसे मानव-सभ्यता बढ़ती गई, वैसे-वैसे आस्था को प्रकाशित करने का ढंग भी बहुत व्यवस्थित और कृत्रिम होने लगा। विभिन्न धार्मिक परम्पराओं ने अपने-अपने कल्पनाओं तथा अनुभूतियों के आधार पर पूजा-अर्चना की पद्धतियाँ भी लागू की। अपने विश्वास को प्रदर्शित करने के लिए अलग-अलग धर्म-सम्प्रदायों ने जगह-जगह देव-स्थलों को स्थापित किया। विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के देवी-देवता इसी धार्मिक संस्कृति का सामुदायिक रूप ही हैं।
मन्दिर, मस्जि़द, गिरज़ाघर, गुरुद्वारा आदि ईंट-पत्थरों का आगार है जो कि आस्था वाले इन्सान के जमात के लिए बनाए गए हैं। वे मनुष्य के व्यक्तिगत और सामुदायिक आस्था के प्रतीक हैं। इनका होना जरूरी इसलिए है कि जमावड़े में व्यक्ति का विश्वास मज़बूत होकर निखरता है। आस्था के कारण ही मनुष्य निर्जीव आगारों को देवालय मानते हैं। इस बात पर कोई शक नहीं करता है कि देवालयों में खुदा विश्वास करता है। वहाँ पूजन, अर्चना, प्रार्थना, भेंट, और समर्पण होते रहते हैं। ईश्वर के विश्वास से मढ़े हुए लोग, चाहें वे हिन्दू या मुसलमान हों, ईसाई हों या सिक्ख हों, या जैन, बौद्ध या कोई, शान-शौकत से अपने-अपने प्रार्थनागार बनवाते हैं और अपने देवता को प्रतिष्ठित करते हैं। इसे वे अन्य समुदायों के सामने सामाजिक इज़्जत का आधार भी मानते हैं। विभिन्न धर्मों से जुड़े हुए करोड़ों विश्वासी इन देव-स्थलों से दिव्य एहसास को हासिल करते हैं, प्रेरणा और मार्गदर्शन लेते हैं। ये धार्मिक स्थल असंख्य लोगों के लिए मानसिक तब्दीली, नई चेतना, उत्साह आत्मिक सुख आदि के कारण भी बनते हैं। इन्सान की जिन्दगी को सन्तुलित करने, उसे दिशा देने तथा उसे खुदा से जोडऩे वाले केन्द्रों के रूप में सभी धर्मों के देव-स्थान और प्रार्थनालय मानव जाति के लिए वास्तव में बड़े वरदान हैं।
परन्तु, तारीख के पन्ने गवाह हैं कि इस आस्था का विकृत रूप भी सदा से मानवीय जीवन का अंग रहा है। सभी धर्म-सम्प्रदायों के देवालय पहले से कहीं अधिक आजकल पाखण्ड, बाहरी दिखावट, बेमतलब नियम-उपनियम से युक्त उपासना-विधान आदि का बोलबाला बन गया है। लगता है पूरखों की बनाई हुई परम्पराओं को बनाए रखना ही पुजारी, मौलवी, पादरी, ज्ञानी आदि धार्मिक कार्यकर्ताओं का मकसद है। यदि दिल खुदा से दूर है तो प्रार्थना केवल मौखिक अभ्यास रह जाता है। अनुष्ठान और चढ़ावा केवल दूसरों को दिखाने के काम आते हैं। जि़न्दगी को सुधारने, साफ-सुथरा बनाने, इन्सानियत को निखारने में यदि पूजा-अर्चना कारगर नहीं होता तो बेकार ही है। खेद के साथ देखना पड़ता है कि कतिपय तथाकथित धार्मिक लोग कर्मकाण्ड की ओर बारिकी से ध्यान देते हैं। किन्तु जि़न्दगी की गलियों में जब उतरते हैं उनमें से बहुत स्वार्थी, मक्कार, दुष्ट, फ़िरकापरस्त, दूसरों पर जलने वाले, दूसरों को अलग-अलग प्रकार की तकलीफ देने वाले दिखाई देते हैं। आचार का विचार से कोई ताल्लुक नहीं रह जाता व्यावहारिक जि़न्दगी बहुत कुछ धार्मिक अनुष्ठानों के खिलाफ चलती हुई दिखाई देती है। प्रभु ईसा ने अपने समय के धार्मिक नेता फ रीसियों के तथा सदूकियों के विषय में जो कहा था वह इस सन्दर्भ में सही ही है— ‘तुम लोग प्याले को बाहर से साफ करते हो, भीतर से वह हर प्रकार की गन्दगी से भरा है’। अपने समय में येरूसलेम मन्दिर में होने वाले पाखण्ड पूर्ण अनुष्ठानों तथा खरीद-फरोख्त के कारण बनी दयनीय दशा को देखते हुए उन्होंने कहा था कि — ‘‘मेरा मन्दिर प्रार्थना का घर है। तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बना दिया है।’’ मन्दिर को ईश्वर का घर ही बना रहना चाहिए। लुटेरों के अड्डे को देवालय नहीं कहा जा सकता। मन्दिर, मस्जि़द, गिरज़ाघर, गुरुद्वारा आदि अपनी-अपनी उपासना-पद्धति के द्वारा दिव्य एहसास को प्रदान करने में, इन्सानों की अपनी-अपनी इन्सानियत को परिष्कृत करने में तथा मानव समाज को बेहतर बनाने में कामयाब न हो सकें, तो वे देवालय के रूप में सार्थक नहीं हैं।
इस सम्बन्ध में खासतौर पर ध्यान देने लायक है बाइबिल की यह मान्यता है कि इन्सान ईश्वर का प्रतिरूप है। वह खुदा के सदृश हैं। उसमें ईश्वर की छाया दिखाई देती है। परछाईं के रूप में परमात्मा, आत्मा के साथ-साथ भीतर से लगा हुआ है। रचनाकार की प्रतिछवि अपनी रचना में पाई न जाती हो, यह नामुमकिन है। पालन करने वाले या मुक्ति दिलाने वाले के रूप में भी खुदा इन्सान के बाहर कदापि नहीं हैं। हर इन्सान में खुदा की प्रतिछवि झलकती है। इसका मतलब यह हुआ कि दुनिया में जितने इन्सान हैं खुदा की ठीक उतनी ही छवि बनती है।
इन्सान को खुदा की प्रतिछवि कहने पर यह मानना आसान ही नहीं जरूरी भी हो जाता है कि इन्सान खुदा का मन्दिर है। इन्सान ही ईश्वर का वास-स्थान है। देवस्थानों पर थोपी गई ईश्वरीय उपस्थिति इन्सान के भीतरी विश्वास की प्रतिछाया भर है। ईंट-पत्थरों के बनाए हुए मन्दिर, मस्जि़द, गिरजाघर, गुरुद्वारा आदि मानव की आस्था के कारण ही जीवन्त हो जाते हैं। वे सिर्फ ईश्वर-वास के प्रतीक हैं। वे कदापि जीवन्त के ईश्वर के योग्य वास-स्थान नहीं हैं। सन्त पौलुस ने लिखा है कि हम जीवन्त के ईश्वर के मन्दिर हैं’ (1 कुङ्क्षरथी 6,16)। वे आगे यह सवाल भी करते हैं कि क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर की आत्मा आप में निवास करती है? यदि कोई ईश्वर का मन्दिर नष्ट करेगा तो उसे ईश्वर नष्ट करेगा। क्योंकि ईश्वर का मन्दिर पवित्र है और वह मन्दिर आप लोग हैं (2 कुङ्क्षरथी 3: 16-17)। असल मेें, जीवन्त इन्सान ही जीवन्त ईश्वर का योग्य मन्दिर है। इस धारणा से इन्सान की महिमा तथा ईश्वर की गरिमा दोनों अटूट तौर पर साबित हो जाती है।
इन्सान को ईश्वर का वास-स्थल बताने का सीधा मतलब यह हुआ कि इन्सान को मन्दिर के लायक पवित्र-भाव को धारण करना होगा। ईसा मसीह ने स्पष्ट कहा है जो हृदय के निर्मल हैं, वे ईश्वर के दर्शन करेंगे (मत्ती 5:8)। दिल-दिमाग आत्मा और देह से पवित्र इन्सान ही खुदा के गेह के योग्य हैं। वही खुदा को देख पायेंगे। अच्छे विचार, साफ-सुथरे भाव, अच्छी आदतें, परिष्कृत व्यवहार आदि मन्दिर के लायक इन्सानियत के लिए बेहद जरूरी हैं। तंग दिल में खुदा का वास नहीं होता। देवालय सा रहने के लिए तन-मन से, आचार-विचार से तथा मन-वाणी से मेल रहित स्वच्छ सँवारा-सजाया हुआ रहना बुनियादी रूप से आवश्यक है। शिष्टता, नेकी, कोमलता, विनम्रता, उदारता आदि दैविक गुण खुदा के आगार के लायक इन्सान की कसौटी है।
खुद को ईश्वर का मन्दिर मानने का अर्थ यह भी है कि इन्सान दूसरे इन्सानों को भी खुदा का मन्दिर समझे। ये दोनों बातें आपस में इस भांति पूरक हैं जिस तरह किसी सिक्के के दोनों पहलू पूरक हैं। इस सन्दर्भ में ईसा की शिक्षा का एक सुनहरा नियम बहुत सार्थक है — ‘जैसा व्यवहार तुम दूसरों से चाहते हो, ठीक वैसा ही व्यवहार उसके साथ भी किया करो’। (मत्ती 7:12)। दूसरों के प्रति सम्मान, सद्भाव, प्रेम, भाईचारा, समन्वय, सहयोग आदि के बर्ताव से ही हमें मन्दिर के लायक गरिमा हासिल होगी। दूसरों के प्रति जो किया जाता है वही ईश्वर के प्रति किया जाता है।
ईसा
का कहना है तुम अपने इन भाईयों में से किसी एक के लिए जो कुछ करते हो, चाहे वह कितना
ही छोटा क्यों न हो, वह तुम मेरे लिए ही करते हो (मत्ती 25:400)। जो ईश्वर को इन्सान
में देख नहीं सकता है, वह उसे मन्दिर में भी कभी नहीं देख सकेगा। जो ईश्वर को इन्सान
में पूज नहीं सकता, वह उसे मन्दिर में भी पूज नहीं सकेगा, क्योंकि इन्सान ही ईश्वर
का असली मन्दिर है। इन्सान की सच्ची सेवा ही खुदा की असली पूजा है। इन्सान से द्वेष
करना ईश्वर से द्वेष करने के बराबर है। ईंट-पत्थर से बने सभी देव-स्थल हमें ऐसी प्रेरणा
दें जिससे हम इन्सान को एक दूसरे के लिए खुदा के जीवन्त मन्दिर के रूप में नए सिरे
से प्रतिष्ठित कर सकें। प्रकृति
में, जीव-जन्तुओं में और खासतौर से इन्सान में, ईश्वर के दर्शन भरपूर मिलते रहें। ईश्वर
के प्रति इस व्यावहारिक और सभी धर्मों के लिए स्वीकार योग्य नजरिये से इन्सानियत की
गरिमा बेहद बढ़ेगी, यह निश्चित है। ‘इन्सान है मन्दिर’ — जि़न्दगी का यह मूल-मंत्र
समूची मानव जाति के लिए नवचेतना का संकल्प बन जाय- यही आज की सबसे बड़ी चुनौती है।
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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।
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दैनिक अवन्तिका, उज्जैन / दैनिक मध्यांचल, उज्जैन / दैनिक अग्नि-पथ, उज्जैन / चौथा संसार (दैनिक), उज्जैन, में -- 30 मार्च 1998 को प्रकाशित
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